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ते नो॑ गृणा॒ने म॑हिनी॒ महि॒ श्रव॑: क्ष॒त्रं द्या॑वापृथिवी धासथो बृ॒हत्। येना॒भि कृ॒ष्टीस्त॒तना॑म वि॒श्वहा॑ प॒नाय्य॒मोजो॑ अ॒स्मे समि॑न्वतम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

te no gṛṇāne mahinī mahi śravaḥ kṣatraṁ dyāvāpṛthivī dhāsatho bṛhat | yenābhi kṛṣṭīs tatanāma viśvahā panāyyam ojo asme sam invatam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ते। नः॒। गृ॒णा॒ने इति॑। म॒हि॒नी॒ इति॑। महि॑। श्रवः॑। क्ष॒त्रम्। द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑। धा॒स॒थः॒। बृ॒हत्। येन॑। अ॒भि। कृ॒ष्टीः। त॒तना॑म। वि॒श्वहा॑। प॒नाय्य॑म्। ओजः॑। अ॒स्मे इति॑। सम्। इ॒न्व॒त॒म् ॥ १.१६०.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:160» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:3» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (गृणाने) स्तुति किये जाते हुए (महिनी) बड़े (द्यावापृथिवी) भूमि और सूर्यलोक हैं (ते) वे (नः) हम लोगों के लिये (बृहत्) अत्यन्त (महि) प्रशंसनीय (श्रवः) अन्न और (क्षत्रम्) राज्य को (धासथः) धारण करें (येन) जिससे हम लोग (विश्वहा) सब दिनों (कृष्टीः) मनुष्यों का (अभि, ततनाम) सब ओर से विस्तार करें और उस (पनाय्यम्) प्रशंसा करने योग्य (ओजः) पराक्रम को (अस्मे) हम लोगों के लिये (समिन्वतम्) अच्छे प्रकार बढ़ावें ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो जन भूमि के गुणों को जाननेवालों की विद्या को जानके उससे उपयोग करना जानते हैं, वे अत्यन्त बल को पाकर सब पृथिवी का राज्य कर सकते हैं ॥ ५ ॥इस सूक्त में द्यावापृथिवी के दृष्टान्त से मनुष्यों का यह उपकार ग्रहण करना कहा, इससे इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह समझना चाहिये ॥यह एकसौ साठवाँ सूक्त और तीसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

ये गृणाने महिनी द्यावापृथिवी स्तस्ते नो बृहन् महि श्रवः क्षत्रं धासथः येन वयं विश्वहा कृष्टीरभिततनाम तत् पनाय्यमोजश्चास्मे समिन्वतम् ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) उभे (नः) अस्मभ्यम् (गृणाने) स्तूयमाने। अत्र कृतो बहुलमिति कर्मणि शानच्। (महिनी) महत्यौ (महि) पूज्यम् (श्रवः) अन्नम् (क्षत्रम्) राज्यम् (द्यावापृथिवी) भूमिसवितारौ (धासथः) दध्याताम्। अत्र व्यत्ययः। (बृहत्) महत् (येन) (अभि) (कृष्टीः) मनुष्यान् (ततनाम) विस्तारयेम (विश्वहा) सर्वाणि दिनानि (पनाय्यम्) स्तोतुमर्हम् (ओजः) पराक्रमम् (अस्मे) अस्मासु (सम्) (इन्वतम्) वर्द्धयतम् ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये भूमिगुणविद्विद्यां विदित्वा तयोपयोक्तुं जानन्ति ते महद्बलं प्राप्य सार्वभौमं राज्यं कर्त्तुं शक्नुवन्तीति ॥ ५ ॥अत्र द्यावापृथिवीदृष्टान्तेन मनुष्याणामेतदुपकारग्रहणमुक्तमतएतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्बोध्या ॥इति षष्ठ्युत्तरं शततमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक भूमीच्या गुणांना जाणणारी विद्या जाणून त्याचा उपयोग करणे जाणतात, ते अत्यंत बल प्राप्त करून सर्व पृथ्वीवर राज्य करतात. ॥ ५ ॥